भेड़ – बकरियों में किन बीमारियों के खिलाफ टीकाकरण किया जाता है?

आज हम और हमारा वातावरण एक ऐसे प्रदूषित घेरे में हैं जो हर दिन नई बीमारियों को जन्म दे रहा है। इसका प्रभाव सिर्फ हम पर ही नहीं, बल्कि हमारे आस-पास के पेड़-पौधों, पशुओं, पक्षियों पर भी पड़ रहा है। आज इंसानों की तरह पशु-पक्षियों में भी नई-नई बीमारियाँ रोजाना जन्म ले रही हैं। इसके कारण पशुपालकों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है। भारत जैसे विकासशील देश में, जहां पशुपालन आर्थिक विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, यदि पशुओं में अचानक कोई महामारी फैलती है, तो इसके कारण देश की अर्थव्यवस्था पर भारी प्रभाव पड़ता है।

नई बीमारियों का इलाज खोजने की प्रक्रिया चल रही है, लेकिन जो बीमारियाँ पहले से मौजूद हैं और जिनके टीके उपलब्ध हैं, उनका सही समय पर टीकाकरण न करने पर भी आर्थिक जोखिम बढ़ जाता है। कुछ भ्रामक जानकारी के कारण कुछ पशुपालक अपने पशुओं का टीकाकरण नहीं कराते, जिसका खामियाजा उन्हें आर्थिक नुकसान के रूप में भुगतना पड़ता है।

समय पर टीकाकरण न करवाने के कारण रोग एक पशु से दूसरे पशु में फैल कर महामारी का रूप ले लेते हैं। इससे उस क्षेत्र की स्वास्थ्य व्यवस्था, आर्थिक प्रगति, पशु की आबादी आदि पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। इन समस्याओं से बचने का एकमात्र उपाय यह है कि जिन बीमारियों के टीके उपलब्ध हैं, उनका समय पर टीकाकरण किया जाए और पशुपालकों को टीकाकरण के लाभों के प्रति जागरूक किया जाए।

पशुपालकों को सभी प्रकार के संक्रामक रोगों का टीकाकरण प्राथमिकता से करवाना चाहिए। आजकल संयुक्त टीके भी उपलब्ध हैं, जो एक ही शॉट से कई रोगों से पशुओं को बचाते हैं। सरकार टीकाकरण के लिए कई अभियान और योजनाएं चलाती है, ताकि पशुओं को बीमारियों से और पशुपालकों को आर्थिक नुकसान से बचाया जा सके।

गाय-भैंस और भेड़बकरियों में टीकाकरण उनके स्वास्थ्य को बनाए रखने और आपके पशुधन की उत्पादकता सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। एक सुव्यवस्थित टीकाकरण अनुसूची संक्रामक बीमारियों के प्रकोप को रोक सकती है, जिससे आपके जानवरों और आपकी आजीविका की सुरक्षा होती है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम पशु चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा अनुशंसित भेड़ और बकरियों के लिए आवश्यक टीकाकरण अनुसूची की जानकारी प्रदान करेंगे। आज हम चर्चा करेंगे कि भेड़-बकरियों में कौन-कौन सी बीमारियों के टीके किस उम्र में दिए जाते हैं।

Vaccination schedule for sheep and goat

टीका (Vaccine)
संक्रामक रोगों के खिलाफ शरीर में सक्रिय प्रतिरक्षा (Active Immunity) विकसित करने के लिए दी जाने वाली औषधि को वैक्सीन कहते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) को तैयार करना है, ताकि व्यक्ति या जानवर विशेष रोगों से संरक्षित रह सकें।

वैक्सीन शब्द का इतिहास:

  • वैक्सीन शब्द पहली बार एडवर्ड जेनर द्वारा दिया गया था।
  • सबसे पहले खोजी गई वैक्सीन चेचक (Smallpox Vaccine) वैक्सीन थी, जिसे एडवर्ड जेनर ने 1796 में Cowpox Virus से विकसित किया।
  • इस वैक्सीन का उपयोग मानव में Smallpox रोग से बचाव के लिए किया गया।
  • “वैक्सीन” शब्द की उत्पत्ति Vaccinia Virus (Cowpox Virus) से हुई है।

वैक्सीन का सामान्य विज्ञान:

  • अधिकतर वैक्सीन में एंटीजन होते हैं, जो मृत अवस्था (Inactive Form) में दिए जाते हैं।
  • वैक्सीनेशन से पहले पशु का स्वास्थ्य पूरी तरह से जांच लेना चाहिए। यदि पशु किसी बीमारी से पीड़ित है, तो उसे वैक्सीनेशन न करवाएं।
  • वैक्सीनेशन से पहले पशु की Deworming अवश्य करवाएं।
  • वैक्सीनेशन केवल उसी पालतू जानवर में करवाएं जो पूरी तरह स्वस्थ हो।
  • ज्यादातर जानवरों में वैक्सीन चमड़ी के नीचे (Subcutaneous Injection – S/C) दी जाती है।
  • कुछ बीमारियों के टीके मांसपेशियों में (Intramuscular Injection – I/M) भी दिए जाते हैं।
  • भेड़ – बकरियों में  CCPP Vaccine एकमात्र ऐसी वैक्सीन है जो Intra Dermal Route से दी  जाती है यानि  त्वचा में।  
  • यदि पशु स्वस्थ रहेगा, तो दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होगी, जिससे पशुपालकों को आर्थिक लाभ होगा।
  • पोल्ट्री में अंडा और मांस उत्पादन में बढ़ोतरी होगी।
  • पशु उत्पादों का सेवन करने वाले लोगों में पशु से मानव में फैलने वाली बीमारियों की संभावना कम होगी।
  • यदि भेड़-बकरियों के फार्म में संक्रामक बीमारियों के लिए समय पर टीकाकरण नहीं करवाया जाता, तो संक्रमण फैलने पर फार्म की सभी भेड़-बकरियों की मृत्यु हो सकती है। यही कारण है कि टीकाकरण अनिवार्य है।
  • टीकाकरण से देश की अर्थव्यवस्था को प्रगति मिलती है।
  1. गलघोंटू रोग (Heamorrhagic Septicemia)
  2. लंगड़ा बुखार (Black Quarter Disease)
  3. एंथ्रेक्स (Anthrax)
  4. खुरपका-मुँहपका रोग (Foot-and-Mouth Disease – FMD)
  5. फड़किया रोग (Enterotoxaemia)
  6. बकरी प्लेग (Goat Plague/PPR/Pseudo Rinderpest)
  7. भेड़ चेचक और बकरी चेचक (Sheep Pox and Goat Pox)
  8. सीसीपीपी (CCPP – Contagious Caprine Pleuro Pneumonia)

विभिन्न जीवाणु और विषाणु जनित बीमारियों के लिए विशेष टीकों की आवश्यकता होती है जो जानवरों के उम्र के विभिन्न चरणों में दिए जाते हैं। यहां भेड़ और बकरी के लिए प्रमुख टीकों की जानकारी दी गई है:

Disease Vaccine Name Age Route Dosage Booster Dose
लंगड़ा बुखार (Black Quarter Disease) Alum Precipitated BQ Vaccine 6 Months Subcutaneous (S/C) 2.5 mL Annually, before monsoon (May-June)
गलघोंटू रोग (Heamorrhagic Septicemia) Alum Precipitated Vaccine 6 Months Subcutaneous (S/C) 2.5 mL Annually, before monsoon (May-June)
एंथ्रेक्स (Anthrax) Pasteur Vaccine
Spore Vaccine
Sterne Vaccine
6 Months Subcutaneous (S/C) 2.5 mL Annually, before monsoon (May-June)
खुरपका-मुँहपका रोग (Foot-and-Mouth Disease – FMD) Raksha-Ovac Trivalent Vaccine 2-3 Months (Calves) Deep Intramuscular (I/M) 1 mL Twice a year, 6 months apart (September and March)
फड़किया रोग (Enterotoxaemia) Raksha E.T Vaccine 3 Months Subcutaneous (S/C) 2 mL Annually, before monsoon (May-June)
बकरी प्लेग (Goat Plague/PPR/Pseudo Rinderpest) Raksha PPR Vaccine 3 Months Subcutaneous (S/C) 1 mL Every 3 years
भेड़ चेचक और बकरी चेचक (Sheep Pox and Goat Pox) Raksha Sheep Pox Vaccine
Raksha Goat Pox Vaccine
3 Months Subcutaneous (S/C) 1 mL Annually
सीसीपीपी (CCPP – Contagious Caprine Pleuro Pneumonia) CCPP Vaccine 3 Months Intradermal (I/D) 0.2 mL Annually

परिचय:
गलघोंटू, जिसे Heamorrhagic Septicemia (HS) के नाम से जाना जाता है, एक गंभीर और तेजी से फैलने वाला जीवाणु जनित रोग है। यह रोग मुख्य रूप से गायों और भैंसों को प्रभावित करता है, विशेषकर बरसात के मौसम में। इस रोग से ग्रसित पशुओं में मृत्यु दर 80-90% तक हो सकती है।


रोग का कारण (Etiology):

  1. जीवाणु:
    • Pasteurella Multocida नामक बैक्टीरिया इस रोग का मुख्य कारण है।
    • यह एक Gram-Negative Bacteria है।
    • Pasteurella Multocida एक Bipolar Bacteria है।
  2. स्थान:
    • यह बैक्टीरिया पशुओं की साँस नली (Respiratory Tract) में लंबे समय तक जीवित रह सकता है।

रोग की अवधि और श्रेणी:

  1. अवधि:
    • गलघोंटू रोग की अवधि केवल 2-3 दिन तक होती है।
  2. श्रेणी:
    • इसे Percute Disease माना जाता है क्योंकि यह रोग तेजी से फैलता है और जल्द ही पशु को मृत्यु तक पहुंचा सकता है।
  3. प्रभावित आयु:
    • यह रोग 6 माह से 2 वर्ष के पशुओं में अधिक होता है।

लक्षण:

  • तेज बुखार।
  • साँस लेने में कठिनाई।
  • गले में सूजन और दर्द।
  • कमजोरी और सुस्ती।

टीकाकरण (Vaccination):
गलघोंटू रोग की रोकथाम के लिए समय पर टीकाकरण अत्यंत आवश्यक है।

  1. प्राथमिक टीकाकरण (Primary Vaccination):
    • आयु: 6 माह।
    • खुराक: 2.5 mL।
    • मार्ग: त्वचा के नीचे (Subcutaneous – S/C)।
  2. वार्षिक बूस्टर (Annual Booster):
    • मानसून से पहले प्रतिवर्ष (मई-जून माह में)।

परिचय:
लंगड़ा बुखार, जिसे ब्लैक क्वार्टर (Black Quarter) के नाम से भी जाना जाता है, मुख्य रूप से गाय और भैंसों को प्रभावित करने वाला एक गंभीर बैक्टीरियल रोग है। यह रोग कंधे या पुट्ठे की मांसपेशियों में गैस भरी सूजन (Emphysematous Swelling) के कारण होता है। तेज बुखार और सेप्टिसीमिया के कारण प्रभावित पशु की मृत्यु हो सकती है।


विशेषताएँ:

  1. रोग के लक्षण:
    • कंधे या पुट्ठे की मांसपेशियों में गैस युक्त सूजन।
    • तेज बुखार।
    • सेप्टिसीमिया।
    • प्रभावित क्षेत्र में सूजन और दर्द।
  2. रोग की अवधि:
    • लंगड़ा बुखार 2 से 6 दिनों तक रहता है, जिससे इसे एक तीव्र रोग (Acute Disease) माना जाता है।
"Illustration of inflammation in a cow or buffalo, focusing on the neck, shoulder joint, and hip joint, with 'The Rajasthan Express' branding in an old newspaper headline style, presented in landscape mode."

भारत में प्रचलन:
यह रोग भारत में विशेष रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और राजस्थान में पाया जाता है।

  • सबसे अधिक मामले मुंबई, हैदराबाद और मैसूर क्षेत्रों में देखे जाते हैं।
  • रोग उन क्षेत्रों में फैलता है जहां की जलवायु गर्म और नम होती है।

रोग का स्वरूप:

  • Enzootic Disease:
    लंगड़ा बुखार एक Enzootic Disease है, जो एक छोटे क्षेत्र में बड़ी संख्या में जानवरों को प्रभावित करती है।
  • Epizootic Disease:
    यदि इस रोग की फैलने की दर बढ़ जाए, तो यह Epizootic Disease का रूप ले सकती है।

रोग का कारण (Etiology):

  1. यह रोग Clostridium Chauvoei नामक ग्राम-पॉजिटिव बैक्टीरिया के कारण होता है।
  2. बैक्टीरिया की विशेषताएँ:
    • स्पोर (Spores) बनाकर यह बैक्टीरिया कई वर्षों तक मिट्टी में जीवित रह सकता है।
    • ये बैक्टीरिया अवायवीय (Anaerobic) होते हैं, जो ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में भी जीवित रह सकते हैं।
    • स्पोर का आकार ड्रमस्टिक (Drumstick) या टेनिस रैकेट जैसा होता है।
  3. नष्ट करने का तरीका:
    • 3% फॉर्मलीन घोल का उपयोग।
"Microscopic view of Clostridium Chauvoei bacteria, showcasing the purple gram-positive bacteria and drumstick-shaped spores, presented with 'The Rajasthan Express' branding in vintage old newspaper headline style."

टीकाकरण (Vaccination):
लंगड़ा बुखार का टीकाकरण मानसून से पहले करना जरूरी है।

  • टीके का नाम: Alum Precipitated BQ Vaccine
  • खुराक: 2.5 mL
  • मार्ग: त्वचा के नीचे (Subcutaneous – S/C)
  • प्राथमिक खुराक: 6 माह की उम्र पर।
  • बूस्टर डोज / पुनः टीकाकरण:
    • प्रति वर्ष मानसून से पहले (मई-जून माह में)।

परिचय:
एंथ्रेक्स एक गंभीर और संक्रामक रोग है, जो Bacillus anthracis नामक बैक्टीरिया के कारण होता है। यह रोग मुख्य रूप से गाय, भैंस, और भेड़ों में पाया जाता है और भेड़ों में अधिक प्रचलित है। एंथ्रेक्स जूनोटिक रोग है, जिसका मतलब है कि यह पशुओं से मनुष्यों तक फैल सकता है।


विभिन्न नाम:
एंथ्रेक्स को कई नामों से जाना जाता है, जैसे:

  • तिल्ली बुखार (Spleenic Fever)
  • Wool Sorter’s Disease (ऊन छांटने वाला रोग)
  • Hide Porter’s Disease
  • गिल्टी रोग
  • जहरी बुखार

कारण और फैलाव (Etiology):

  1. कारण:
    • Bacillus anthracis, एक ग्राम-पॉजिटिव रॉड-आकार का बैक्टीरिया।
  2. फैलाव के माध्यम:
    • दूषित जल और मिट्टी।
    • मक्खी और मांसाहारी पक्षी।
    • रोगी पशु के रक्त और डिस्चार्ज।
  3. मौसम:
    • गर्मी और आर्द्रता वाले मौसम में अधिक फैलाव।

टीकाकरण (Vaccination):
एंथ्रेक्स का टीकाकरण मानसून से पहले करवाना अत्यंत आवश्यक है।

  • टीके के नाम:
    • Pasteur Vaccine
    • Spore Vaccine
    • Sterne Vaccine
  • खुराक: 2.5 mL
  • मार्ग: त्वचा के नीचे (Subcutaneous – S/C)
  • प्राथमिक खुराक: 6 माह की उम्र पर।
  • बूस्टर डोज / पुनः टीकाकरण:
    • प्रति वर्ष मानसून से पहले (मई-जून माह में)।

परिचय:
खुरपका-मुँहपका रोग (FMD) Picornaviridae परिवार के Aphthovirus के कारण होने वाला अत्यधिक संक्रामक वायरल संक्रमण है। यह मुख्य रूप से विभाजित खुर वाले जानवरों जैसे गाय, भैंस, बकरी, भेड़, और सूअर को प्रभावित करता है। यह रोग पशुओं में दुग्ध उत्पादन, मांस की गुणवत्ता और ऊन उत्पादन को कम करता है, जिससे पशुपालकों को भारी आर्थिक नुकसान होता है।


प्रमुख विशेषताएं:

  1. कारण:
    • Aphthovirus के कारण होता है।
    • Picorna Virus, जो जानवरों में सबसे छोटा वायरस है।
    • भारत में यह रोग मुख्यतः AO, और ASIA-1 स्ट्रेन्स द्वारा होता है।
    • C स्ट्रेन भारत में उन्मूलित कर दिया गया है।
  2. संक्रमण का प्रभाव:
    • यह रोग विभाजित खुर वाले जानवरों (गाय, भैंस, बकरी, भेड़, सूअर) को प्रभावित करता है।
    • अविभाजित खुर वाले जानवर जैसे घोड़े और गधे इस रोग से प्रभावित नहीं होते।
    • दुग्ध उत्पादन, मांस की गुणवत्ता, और ऊन उत्पादन में भारी कमी आती है।

FMD का कोई प्रभावी इलाज नहीं है, इसलिए टीकाकरण ही इसका एकमात्र बचाव है।

  • टीके का नाम: Raksha-Ovac Trivalent Vaccine
  • खुराक: 1 mL
  • मार्ग: गहराई से मांसपेशी में (Deep Intramuscular – I/M)
  • प्राथमिक खुराक:
    • बछड़ी और बछड़ों में 2-3 माह की उम्र में।
  • बूस्टर खुराक / पुनः टीकाकरण:
    • प्रतिवर्ष दो बार, 6 माह के अंतराल पर (सितंबर और मार्च में)।

टीकाकरण की आवश्यकता

  • एफएमडी रोग का टीकाकरण विभाजित खुर वाले जानवरों में नियमित रूप से किया जाना चाहिए।
  • समय पर टीकाकरण से पशुओं की उत्पादकता में सुधार होता है और पशुपालकों को आर्थिक हानि से बचाव होता है।
  • कारण:
    यह रोग मुख्य रूप से Clostridium perfringens बैक्टीरिया (ग्राम पॉजिटिव बैक्टीरिया) से होता है। यह मानसून के मौसम में अधिक फैलता है।
  • टीकाकरण जानकारी:
    • टीके का नाम: Raksha E.T Vaccine
    • खुराक: 2 mL, त्वचा के नीचे (Subcutaneous/S.C)
    • प्राथमिक खुराक: 3 माह की आयु में
    • बूस्टर खुराक / पुनः टीकाकरण:
      हर वर्ष, मानसून से पहले (मई-जून में)।

  • कारण:
    यह Morbillivirus से होता है और मुख्य रूप से पाचन तंत्र को प्रभावित करता है। यह बकरियों में आम है।
    • टीकाकरण जानकारी:
      • टीके का नाम: Raksha PPR Vaccine
      • खुराक: 1 mL, त्वचा के नीचे (Subcutaneous/S.C)
      • प्राथमिक खुराक: 3 माह की आयु में
      • बूस्टर खुराक / पुनः टीकाकरण:
        हर 3 साल में एक बार।

  • कारण:
    यह Capripox Virus से होता है। यह छुआछूत का रोग है और शरीर के संपर्क से फैलता है।
  • टीकाकरण जानकारी:
    • टीके का नाम: Raksha Sheep Pox Vaccine और Raksha Goat Pox Vaccine
    • खुराक: 1 mL, त्वचा के नीचे (Subcutaneous/S.C)
    • प्राथमिक खुराक: 3 माह की आयु में
    • बूस्टर खुराक / पुनः टीकाकरण:
      हर वर्ष।

  • कारण:
    यह रोग Mycoplasma mycoides caprae बैक्टीरिया से होता है।
  • टीकाकरण जानकारी:
    • टीके का नाम: CCPP Vaccine
    • खुराक: 0.2 mL, त्वचा के अंदर (Intradermal/I.D)
    • प्राथमिक खुराक: 3 माह की आयु में
    • बूस्टर खुराक / पुनः टीकाकरण:
      हर वर्ष।

“Healthy goats are the foundation of sustainable farming. Follow the vaccination schedule to protect your herd from diseases like PPR, goat pox, and E.T.”

THE RAJASTHAN EXPRESS

लोग यह भी पूछते हैं?

बकरियों में पीपीआर रोग क्या होता है?
पीपीआर (Peste des Petits Ruminants) एक विषाणुजनित रोग है, जो मुख्य रूप से बकरियों और भेड़ों को प्रभावित करता है। यह बीमारी तेज बुखार, सर्दी, खांसी और दस्त के रूप में दिखाई देती है, और इसकी मृत्यु दर बहुत अधिक हो सकती है।
भेड़ और बकरियों के लिए टीके कौनसे हैं?
भेड़ और बकरियों के लिए कई प्रकार के टीके उपलब्ध हैं, जैसे गलघोंटू, लंगड़ा बुखार, एंथ्रेक्स, चेचक और पीपीआर। इन टीकों से पशुओं को संक्रामक रोगों से सुरक्षा मिलती है।
बकरियों में किन बीमारियों के खिलाफ टीकाकरण किया जाता है?
बकरियों में पीपीआर, गलघोंटू, लंगड़ा बुखार, एंथ्रेक्स और चेचक जैसी बीमारियों के खिलाफ टीकाकरण किया जाता है।
भेड़ में किन बीमारियों के खिलाफ टीकाकरण किया जाता है?
भेड़ों में गलघोंटू, लंगड़ा बुखार, एंथ्रेक्स और चेचक जैसी बीमारियों के खिलाफ टीकाकरण किया जाता है।
बकरियों में पीपीआर का टीका कब लगाया जाता है?
बकरियों में पीपीआर का प्राथमिक टीका 3 महीने की उम्र के बाद लगाया जाता है। इसके बाद हर 3 साल में एक बार बूस्टर डोज दिया जाता है।
टीकाकरण जानकारी:
  • टीके का नाम: Raksha PPR Vaccine
  • खुराक: 1 mL (त्वचा के नीचे – Subcutaneous/S.C)
  • प्राथमिक खुराक: 3 माह की आयु में
  • बूस्टर खुराक: हर 3 साल में एक बार
बकरी में ई.टी. का टीका कब लगाया जाता है?
ई.टी. (Enterotoxemia) का टीका बकरियों को 3 महीने की आयु में दिया जाता है और फिर हर साल एक बार बूस्टर डोज दिया जाता है।
बकरियों में गलघोंटू रोग का टीका कब लगाया जाता है?
गलघोंटू का टीका 6 महीने की उम्र में पहली बार दिया जाता है और फिर हर साल मानसून से पहले बूस्टर डोज दिया जाता है।
बकरियों में एंथ्रेक्स रोग का टीका कब लगाया जाता है?
एंथ्रेक्स का टीका बकरियों को 6 महीने की उम्र में लगाया जाता है और फिर हर साल मानसून से पहले बूस्टर डोज दिया जाता है।
बकरियों में चेचक का टीका कब लगाया जाता है?
बकरियों में चेचक का टीका 6 महीने की उम्र में लगाया जाता है और फिर बूस्टर डोज दिया जाता है, खासतौर पर उन क्षेत्रों में जहां चूहों का खतरा होता है।
बकरियों में फड़किया रोग का टीका कब लगाया जाता है?
फड़किया रोग का टीका बकरियों को मानसून से पहले और हर साल बूस्टर डोज के रूप में दिया जाता है।
टीकाकरण जानकारी:
  • टीके का नाम: Raksha ET Vaccine
  • खुराक: 2 mL (त्वचा के नीचे – Subcutaneous/S.C)
  • प्राथमिक खुराक: 3 माह की आयु में
  • बूस्टर खुराक: हर वर्ष, मानसून से पहले (मई-जून में)
बकरियों में पीपीआर वैक्सीनेशन की डोज कितनी है?
पीपीआर वैक्सीनेशन की डोज 1 mL होती है, जो त्वचा के नीचे (Subcutaneous) दी जाती है।
टीकाकरण जानकारी:
  • टीके का नाम: Raksha PPR Vaccine
  • खुराक: 1 mL (त्वचा के नीचे – Subcutaneous/S.C)
  • प्राथमिक खुराक: 3 माह की आयु में
  • बूस्टर खुराक: हर 3 साल में एक बार
भेड़-बकरियों में किस बीमारी का टीका मांसपेशी में दिया जाता है?
खुरपका-मुँहपका रोग (Foot-and-Mouth Disease – FMD) का टीका मांसपेशी में (Intramuscular) दिया जाता है। यह एकमात्र बीमारी है जिसका टीका सिर्फ मांसपेशी में (Intramuscular) दिया जाता है।
भेड़-बकरियों में किस बीमारी का टीका त्वचा में दिया जाता है?
सीसीपीपी (CCPP – Contagious Caprine Pleuro Pneumonia) रोग का टीका त्वचा में (Intra Dermal) दिया जाता है। यह एकमात्र बीमारी है जिसका टीका सिर्फ त्वचा में (Intra Dermal) दिया जाता है।
भेड़-बकरियों में फड़किया रोग सामान्यत: कब फैलता है?
फड़किया रोग आमतौर पर मानसून के समय फैलता है, जब वातावरण अधिक नम और गीला होता है। इसी कारण फड़किया रोग का टीकाकरण मानसून मौसम से पहले किया जाता है।
भेड़-बकरियों में टीकाकरण करवाना क्यों आवश्यक है?
टीकाकरण पशुओं को संक्रामक रोगों से बचाता है, जिससे उनकी उत्पादकता बढ़ती है और पशुपालकों को आर्थिक नुकसान से बचाव होता है। यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी लाभकारी है क्योंकि इससे महामारी के फैलने का खतरा कम होता है।