असील मुर्गे की क्या पहचान है?

मुर्गी पालन की शुरुआत 1400 ईसा पूर्व से हुई। प्राचीन समय में घरों में मुर्गियों को छोटे समूहों में मांस की आपूर्ति के लिए पाला जाता था। लेकिन 20वीं सदी में मुर्गीपालन व्यावसायिक रूप से विकसित हुआ। इसके बाद मुर्गियों को मुख्य रूप से अंडा और मांस उत्पादन के लिए पाला जाने लगा। भारत में पारंपरिक रूप से मुर्गीपालन शून्य खर्च वाली प्रणाली के तहत बैकयार्ड पोल्ट्री के रूप में किया जाता है। यह प्रणाली मुख्य रूप से मांस, अंडा, और खेल पक्षी के रूप में, खासकर आदिवासी क्षेत्रों में अपनाई जाती है।

भारत के दूरदराज इलाकों में मुर्गीपालन का आदिवासी संस्कृति से गहरा संबंध है। विभिन्न भौगोलिक वितरण और जलवायु ने अलग-अलग नस्लों और जनसंख्या संरचनाओं को विकसित किया है। इसी तरह, कड़कनाथ मुर्गे का उद्गम मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों, विशेष रूप से धार और झाबुआ जिलों से हुआ है। ये मुर्गे मुख्य रूप से स्थानीय जनजातियों द्वारा पाले जाते हैं, जिन्होंने इन्हें लंबे समय से संरक्षित किया है और इनकी अनूठी विशेषताओं को पूरी दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है।

असिल या असील मुर्गा भारत की एक प्रसिद्ध नस्ल है, जिसे ताकत, सहनशक्ति, और लड़ाकू स्वभाव के लिए जाना जाता है। यह नस्ल ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण मानी जाती है। “असील” एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ है “शुद्ध” या “शुद्ध नस्ल।” माना जाता है कि असील गेमफाउल नस्ल लगभग 3,500 साल पुरानी है। मुर्गों की लड़ाई का उल्लेख प्राचीन भारतीय पांडुलिपि “मनुस्मृति” में भी मिलता है।

"छत्तीसगढ़ के उत्तर और दक्षिण बस्तर जिले में पाए जाने वाले असील मुर्गे।"

संभवतः असील नस्ल भारतीय लाल जंगल पक्षी से विकसित हुई है और चयनात्मक प्रजनन की अनगिनत पीढ़ियों के माध्यम से इसे एक नई नस्ल का रूप दिया गया है। असील या मलय मुर्गियों ने आधुनिक समय की लगभग सभी मुर्गी नस्लों को जन्म दिया है। यहां तक कि कई यूरोपीय नस्लें भी इसी से विकसित हुई हैं।

असील भारत की एक महत्वपूर्ण स्वदेशी नस्ल है, जो अपनी लड़ाई की प्रवृत्ति और स्वादिष्ट मांस के लिए जानी जाती है। यह नस्ल गर्मी सहने और रोगों के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता के लिए भी प्रसिद्ध है। इसकी सभी विशेषताएं प्राकृतिक और जैविक प्रक्रियाओं के माध्यम से लंबे समय में विकसित हुई हैं।

हालांकि, समय के साथ अन्य नस्लों के साथ क्रॉस ब्रीडिंग के कारण इसकी शुद्धता में कमी आई है। आज, असील मुर्गियों का उपयोग मुख्य रूप से खेल प्रतियोगिताओं में लड़ाई के लिए किया जाता है। असील नस्ल एक साल में लगभग 70 अंडे देती है, जो इसे सबसे कम अंडे देने वाली नस्लों में शामिल करता है। यही कारण है कि हर साल इसकी जनसंख्या में कमी आ रही है।

असिल नस्ल मुख्य रूप से भारत के तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, और ओडिशा राज्यों में पाई जाती है। इसके अलावा, इसे कई अन्य देशों में भी निर्यात किया गया है।

असील नस्ल को भारतीय देशी नस्ल पंजीकरण संस्था NBAGR (National Bureau of Animal Genetic Resources) द्वारा पंजीकृत किया गया है। NBAGR का मुख्यालय हरियाणा के करनाल में स्थित है। भारत में वर्तमान में कुल 220 देशी पशु और पोल्ट्री नस्लें पंजीकृत हैं। पहले कुल 212 नस्लें पंजीकृत थीं, लेकिन दिसंबर 2023 में 8 नई नस्लों को पंजीकृत करने के बाद यह संख्या बढ़कर 220 हो गई है।

नई नस्ल का पंजीकरण करने से पहले, उस नस्ल में कम से कम 1,000 पशु होना आवश्यक है। भारत में मुर्गियों की कुल देशी नस्लें 20 हैं। हाल ही में अरावली मुर्गी को एक नई नस्ल के रूप में पंजीकृत किया गया है।

Aravali Chicken (अरावली मुर्गी)
अरावली मुर्गी गुजरात की प्रमुख नस्ल है। यह एक द्वि-उद्देश्यीय (Dual Purpose) नस्ल है, जिसका उपयोग मांस और अंडा उत्पादन दोनों के लिए किया जाता है। अरावली नस्ल मुख्य रूप से गुजरात के बनासकांठा, साबरकांठा, अरावली, और महिसागर जिलों में पाई जाती है।

Asil Chicken Information

Conservation Status Not at Risk
Scientific Classification
  • Domain: Eukaryota
  • Kingdom: Animalia
  • Phylum: Chordata
  • Class: Aves
  • Order: Galliformes
  • Family: Phasianidae
  • Genus: Gallus
  • Species: Gallus gallus
  • Binomial Name: Gallus gallus Linnaeus, 1758
Breed Type Fighting and Dual-purpose Breed
Alternate Names
  • Peela
  • Noorie
  • Chitta
  • Yakub
  • Kagar
  • Java
  • Sabja
  • Teekar
  • Reja
  • Fighting Rooster (due to its fighting abilities)
  • Indian Game or Game Fowl (reflecting its heritage as a game bird)
  • Lucknow Chicken (named after the region where it is found)
Origin Closely related to the Red Jungle Fowl, this breed was developed by the tribals of Bastar (Chhattisgarh) and Andhra Pradesh.
Breeding Tract
  • State: Andhra Pradesh, District: Khammam
  • State: Odisha, District: Koraput
  • State: Odisha, District: Malkangiri
  • State: Chhattisgarh, District: Bastar
  • State: Chhattisgarh, District: Dantawara
Location Coordinates
  • Longitude: Min: 80° 15′, Max: 82°
  • Latitude: Min: 17° 46′, Max: 20° 34′
Breed Composition Derived from Red Junglefowl, selectively bred for fighting and utility
Physical Traits
  • Plumage Type: Normal
  • Plumage Pattern: Patchy
  • Plumage Colour: Red, Black
  • Comb Type: Pea
  • Skin Colour: Yellow
  • Shank Colour: Yellow
  • Egg Shell Colour: Brown
  • Visible Character: Small but firmly set comb, bright red ear lobes, long and slender face devoid of feathers. The general feathering is close, scanty, and almost absent on the breast. The plumage has practically no fluff, and the feathers are tough.
Weight
  • Male: 4 kg
  • Female: 2.59 kg
Egg Production
  • Annual Egg Production: 30-36 eggs
  • Egg Color: Brown
  • Egg Size: Medium
  • Egg Weight (g): 39-44
Meat Production Known for flavorful, firm meat with unique taste
Breeding Traits
  • First Egg Laying: 6–7 months (27-29 week)
  • Breeding System: Backyard Poultry
  • Fertility Rate: 84.28%
  • Hatchability Rate: 74-85%
  • Mothering Ability: Good
Temperament Aggressive, territorial, protective
Adaptability Adaptable to different climates, but prefers rural and warm regions
Population
  • 1998: 12000
Uses
  • Meat: Prized for its firm and flavorful meat
  • Eggs: Moderate production, often used for local consumption
  • Fighting: Historically used for cockfighting, although this practice is now restricted in many places

“असील” एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ “शुद्ध” या “शुद्ध नस्ल” होता है। यह माना जाता है कि असील नस्ल लगभग 3,500 साल पुरानी है। मुर्गों की लड़ाई का उल्लेख प्राचीन भारतीय पांडुलिपि “मनुस्मृति” में भी मिलता है। असील मुर्गा भारत की एक प्रसिद्ध नस्ल है, जिसे मुख्य रूप से लड़ाकू नस्ल के रूप में पाला जाता है।

असील नस्ल की उत्पत्ति लाल जंगल मुर्गी के साथ कई पीढ़ियों तक चयनात्मक प्रजनन के परिणामस्वरूप हुई है। इसका जन्मस्थान आमतौर पर आंध्र प्रदेश के खम्मम जिले और छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले को माना जाता है। इन राज्यों के आदिवासी लोगों ने प्राचीन समय में असील नस्ल को पाला और मांस व अंडे की आपूर्ति के लिए इसका उपयोग किया। साथ ही, मनोरंजन के लिए मुर्गों की लड़ाई का आयोजन भी किया जाता था।

"An Aseel hen in a rural farm setting, highlighting its historical significance and adaptability."

असील मुर्गे मुख्य रूप से स्थानीय जनजातियों द्वारा पाले गए हैं, जिन्होंने इनकी अनूठी विशेषताओं को संरक्षित किया है और इन्हें दुनिया भर में प्रस्तुत किया है। हालांकि, मुर्गों की लड़ाई के खेल के शौकीनों ने इस नस्ल को पूरे भारत में वितरित कर दिया। असील या मलय मुर्गियों ने आधुनिक समय की अधिकांश मुर्गी नस्लों को जन्म दिया है। यह नस्ल आज भी सबसे पुरानी और प्रभावशाली मानी जाती है।


असील मुर्गा पूरे भारत में पाया जाता है, लेकिन इसका मुख्य प्रजनन क्षेत्र छत्तीसगढ़ के उत्तर बस्तर और दक्षिण बस्तर जिले तथा आंध्र प्रदेश के खम्मम जिले में स्थित है। इस क्षेत्र में अधिकांश किसान औसतन 4.67 एकड़ भूमि के मालिक होते हैं। यही कारण है कि हर पांचवें परिवार में से एक परिवार बैकयार्ड पोल्ट्री प्रणाली के माध्यम से मुर्गीपालन करता है।

इसके अलावा, असील मुर्गी उड़ीसा के कोरापुट और मलकानगिरी जिलों , तमिलनाडू राज्य तथा छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में भी पाई जाती है। यह नस्ल ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक बैकयार्ड पोल्ट्री का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

असील नस्ल मुख्य रूप से बस्तर और आंध्र प्रदेश के आसपास के क्षेत्रों के आदिवासी समुदायों द्वारा विकसित की गई है। इन लोगों ने अपने अनुभव और पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करके इस नस्ल को संरक्षित और उन्नत किया। यह नस्ल नवाबों, जमींदारों, और राजाओं के संरक्षण में पनपी, विशेष रूप से विजयनगरम के राजा का योगदान इस नस्ल के विकास में उल्लेखनीय रहा।

Historical depiction of Nawabs and kings raising Asil chickens for meat and egg supply.

यहां के जमींदार और राजा अपनी मांस और अंडे की आपूर्ति के लिए असील मुर्गों को पालते थे। आदिवासी समुदाय के लोग भी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए 4-5 मुर्गे और मुर्गियों को घर के पीछे खाली स्थान में रखते थे, जिसे बैकयार्ड पोल्ट्री हाउसिंग सिस्टम कहा जाता है। वे अपने अनुभव के आधार पर प्रजनन करवाते थे।

असील नस्ल में बोनी स्पर (हड्डी वाले पंजे) अत्यधिक विकसित होते हैं। इस वजह से, आदिवासी समाज और स्थानीय लोग मनोरंजन के लिए इन मुर्गों की अन्य नस्लों के साथ लड़ाई करवाते थे। इन्हीं लड़ाकू गुणों के कारण असील नस्ल पूरे भारत में प्रसिद्ध हो गई।

आदिवासी क्षेत्रों में असील मुर्गियों को मुख्यतः घर के पीछे खाली जगह पर पाला जाता है, जिसे बैकयार्ड पोल्ट्री हाउसिंग सिस्टम कहा जाता है। असील मुर्गों को फ्री रेंज हाउसिंग सिस्टम के तहत भी पाला जाता है, जिसमें मुर्गियों को खुले खेत या फार्म में छोड़ दिया जाता है, और वे वहां घूमते हुए अपना गुजारा करती हैं। हालांकि, फ्री रेंज हाउसिंग सिस्टम में बीमारियों के फैलने का खतरा ज्यादा रहता है। 

Traditional backyard poultry farming scene featuring Asil chickens in a rural Indian setting."

असील मुर्गों में बोन स्पर सबसे अधिक विकसित होते हैं, इसलिए इन्हें लड़ाकू मुर्गा, इंडियन गेम या गेम फाउल भी कहा जाता है। असील मुर्गे को लखनऊ मुर्गा भी कहा जाता है। असील नस्ल से अन्य नस्लों को चयनात्मक प्रजनन (Selective Breeding) द्वारा विकसित किया गया है, जिससे असील नस्ल को पीला, नूरी, चित्त, याकूब, कागर, जावा, सब्जा, टीकर और रेज़ा जैसे नामों से भी जाना जाता है।

  1. रेजा (हल्की लाल)
  2. चित्ता (काले और सफ़ेद सिल्वर)
  3. कागर (काली)
  4. नूरी 89 (सफ़ेद)
  5. यारकिन (काली और लाल)
  6. पीला (सुनहरी लाल)

असील मुर्गी अपनी सहनशक्ति, शक्ति और लड़ाई की विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध है।

पंखों का रंग
असील नस्ल के मुर्गों का सबसे सामान्य पंखों का रंग भूरा-लाल होता है, इसके बाद लाल-भूरा और काला रंग होता है। हालांकि, कुछ मुर्गों में सफेद और सुनहरे रंग के पंख भी पाए जाते हैं।

पंखों का पैटर्न
असील मुर्गियों में पंखों का पैटर्न सामान्यतः पैची और ठोस होता है। कुछ मुर्गों में मटमैला और धब्बेदार पैटर्न भी देखा जा सकता है।

त्वचा का रंग
असील मुर्गों की त्वचा का रंग सामान्यतः पीला होता है, लेकिन कुछ मुर्गों में सफेद रंग भी पाया जाता है।

"Close-up of an Asil (Aseel) chicken highlighting its muscular build and distinct plumage."

पंजों का रंग
असील मुर्गों के पंजों का रंग आमतौर पर पीला होता है। असील नस्ल में लड़ाकू गुण, झगड़ालू स्वभाव और अत्यधिक सहनशक्ति विशेष रूप से पाई जाती है। असील मुर्गे में बोन स्पर सबसे अधिक विकसित होते हैं, यही कारण है कि इसे लड़ाकू नस्ल या गेम फाउल कहा जाता है।

कान की लौब का रंग
असील मुर्गों और मुर्गियों के कान की लौब का रंग लाल होता है।

कंघी का रंग और प्रकार
असील में विभिन्न प्रकार की कंघियाँ (Combs) पाई जाती हैं, जैसे कि सिंगल, मटर और गुलाब कंघी। असील मुर्गों में मटर कंघी सामान्यत: पाई जाती है, जबकि सिंगल और गुलाब कंघियाँ कुछ मुर्गों में पाई जाती हैं। कुछ विशेष मामलों में, वयस्क नर में V आकार की कंघी और पोल्ट्री में पीली कंघी भी देखी जाती है।

आंखों का रंग
असील मुर्गों की आँखों का रंग सामान्यतः भूरा होता है, लेकिन कुछ मुर्गों में काले रंग की आँखें भी देखी जाती हैं।

मुर्गे की चाल
असील मुर्गे की चाल बहुत राजसी और आकर्षक होती है।

शरीर का वजन
असील मुर्गे 14 सप्ताह की उम्र में आधे किलो वजन तक पहुँच जाते हैं। 20-24 सप्ताह में 1 किलो, 32 सप्ताह में 1.5 किलो और एक वर्ष की आयु में लगभग 2.5 किलो वजन तक पहुँच जाते हैं।

असील मुर्गे का वजन (आयु के अनुसार)

आयु (सप्ताह) औसत वजन
जन्म (0 सप्ताह) 20.0 ± 0.05 ग्राम
8 सप्ताह 234.0 ± 0.14 ग्राम
20 सप्ताह 934 ± 0.61 ग्राम
40 सप्ताह 1964 ± 12.25 ग्राम

नोट: असील मुर्गे 14 सप्ताह की उम्र में आधे किलो, 20-24 सप्ताह में 1 किलो, 32 सप्ताह में 1.5 किलो और 1 वर्ष में 2.5 किलो तक वजन तक पहुँच जाते हैं।

सामान्यत: सभी मुर्गियाँ 20-22 सप्ताह की उम्र में पहला अंडा देती हैं, लेकिन असील मुर्गी 27-29 सप्ताह की आयु में पहला अंडा देती है। खेतों में, एक मुर्गी 15-20 दिनों तक अंडे देती है। इसके बाद वह 21-22 दिनों तक अंडों को सेती है। अंडों से चूजे बाहर आने के बाद, वह 8-12 सप्ताह तक चूजों को सेती रहती है और फिर पुनः अंडे देने लगती है। “असील नस्ल की मुर्गियों में ब्रूडीनेस का अच्छा गुण पाया जाता है, जो अन्य सभी नस्लों में सर्वोत्तम है। (Best Mother)”

असील मुर्गी कितने अंडे देती है? (Egg Production)

  • असील मुर्गियां प्रति वर्ष लगभग 30-36 अंडे देती हैं, जो तीन चक्रों में विभाजित होते हैं (प्रत्येक चक्र में 10-12 अंडे)।
  • हालाँकि पक्षी पूरे वर्ष अंडे देते हैं, लेकिन गर्मियों के दौरान विशेष रूप से मई और जून में इसकी आवृत्ति बहुत कम होती है। अगर अंडे दिए भी जाते हैं तो उनमें से बच्चे निकलने की क्षमता बहुत कम होती है।
"An Asil female chicken in a natural farm setting, showcasing its potential for egg and meat production."
  • अंडे का रंग मुख्य रूप से भूरा होता है।
  • तुलना के लिए, कड़कनाथ मुर्गी के अंडों का रंग काला होता है।

अंडे का वजन:

  • असील नस्ल के अंडे का वजन 39-44 ग्राम के बीच होता है।
  • औसत वजन 41 ग्राम होता है।

असील किस लिए प्रसिद्ध है? (Meat Production)

  • असील मुर्गियों को मुख्यतः मांस उत्पादन के लिए पाला जाता है। इन्हें ब्रॉयलर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
  • इन मुर्गियों को 28-32 सप्ताह की उम्र के बाद आदिवासी समुदाय द्वारा विशेष अवसरों जैसे त्योहार, धार्मिक कार्यक्रम, या शादी के लिए वध किया जाता है।
  • ड्रेसिंग प्रतिशत: जब असील मुर्गियों को 27-50 सप्ताह की उम्र में मारा जाता है, तो इनका ड्रेसिंग प्रतिशत 75% तक होता है।



  • असील मुर्गियों में निम्नलिखित बीमारियां आम हैं:
    • रानीखेत रोग
    • मेरेक रोग 
    • गम्बोरो रोग 
    • बर्ड फ़्लु
    • बैसिलरी व्हाइट डायरिया

मुर्गियों में कई प्रकार की वायरस जनित बीमारियां पाई जाती हैं, लेकिन सामान्यतः देखी जाने वाली प्रमुख बीमारियां इस प्रकार हैं: रानीखेत रोग , मेरेक रोग , गम्बोरो रोग और बर्ड फ़्लू आदि। 

Parasitic Infestation

  • आंतरिक परजीवी:
    • एस्केरियासिस (एक प्रकार का परजीवी रोग)
    • टैनीसिस
  • बाहरी परजीवी:
    • जूँ और टिक संक्रमण।

टीकाकरण और उपचार (Vaccination and Treatment)

  • आदिवासी क्षेत्रों में अधिकांश मुर्गियां बिना टीकाकरण के रहती हैं।
  • टीकाकरण और उपचार की सुविधा की कमी इन क्षेत्रों में प्रमुख समस्या है।
  • असील मुर्गे को लखनऊ का मुर्गा भी कहा जाता है।
  • असील नस्ल को भारत में मुख्यतः मांस उत्पादन (Broiler) के लिए पाला जाता है।
  • इस नस्ल में पंजा (Bony Spur) अत्यधिक विकसित होता है, जिसके कारण यह मुर्गों की लड़ाई में अन्य सभी नस्लों को हराने में सक्षम है। इसी वजह से इसे लड़ाकू नस्लइंडियन गेम, या गेम फाउल भी कहा जाता है।
  • असील नस्ल की मुर्गियों में एक खास राजसी चाल देखने को मिलती है।
  • असील नस्ल की मुर्गियाँ अन्य सभी नस्लों की तुलना में अधिक ब्रूडीनेस (अंडे सेने का स्वभाव) प्रदर्शित करती हैं। इसे सभी नस्लों में सबसे अच्छी माता कहा जा सकता है।
  1. किसानों को शिक्षा और सहायता प्रदान करना: किसानों को मुर्गी पालन और पशुपालन के क्षेत्रों में शिक्षा दी जानी चाहिए और उन्हें तकनीकी मदद भी मिलनी चाहिए।
  2. टीकाकरण: किसानों को सही समय पर और प्रभावी टीकाकरण के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए ताकि उनकी मुर्गियों को बीमारियों से बचाया जा सके, जैसे – मेरेक बीमारी, रानीखेत बीमारी, गम्बोरो रोग और बर्ड फ्लू आदि।
  3. बाहरी और आंतरिक परजीवी नियंत्रण: किसानों को आंतरिक (Endoparasitic) और बाहरी (Ectoparasitic) परजीवियों से बचाव के उपायों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए। इससे पक्षियों की स्वास्थ्य स्थिति बेहतर रहेगी और उत्पादन में वृद्धि होगी।
  4. असील प्रदर्शनी/मेला का आयोजन: स्थानीय क्षेत्र में असील मुर्गियों की प्रदर्शनी या मेला आयोजित किया जाना चाहिए। विभिन्न श्रेणियों में सर्वश्रेष्ठ मुर्गियों को पुरस्कृत किया जाना चाहिए और किसानों को प्रेरित किया जाना चाहिए, ताकि उन्हें अपने पालन में सुधार करने के लिए प्रोत्साहन मिले।
  5. रोग निदान सुविधाएँ: प्रत्येक तहसील/ब्लॉक स्तर पर रोग निदान सुविधाएँ स्थापित की जानी चाहिए, ताकि किसान समय पर बीमारी का पता लगा सकें और उचित उपचार कर सकें। सरकारी अस्पतालों में मुर्गियों के टीकाकरण की सुव्यवस्था होनी चाहिए।

“असील” एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ “शुद्ध” या “शुद्ध नस्ल” होता है। यह माना जाता है कि असील नस्ल लगभग 3,500 साल पुरानी है। मुर्गों की लड़ाई का उल्लेख प्राचीन भारतीय पांडुलिपि “मनुस्मृति” में भी मिलता है। असील मुर्गा भारत की एक प्रसिद्ध नस्ल है, जिसे मुख्य रूप से लड़ाकू नस्ल के रूप में पाला जाता है।

लोग यह भी पूछते हैं ?

असील मुर्गियों का उपयोग किस लिए किया जाता है?
असील मुर्गियों का मुख्य उपयोग लड़ाई में, मांस उत्पादन, और अंडे देने के लिए किया जाता है। यह मुख्य रूप से खेल प्रतियोगिताओं में लड़ने के लिए पाली जाती हैं और इनका मांस स्वादिष्ट होता है।
असील किस लिए प्रसिद्ध है?
असील मुर्गियां अपनी लड़ाई की प्रवृत्ति, सहनशक्ति, और ताकत के लिए प्रसिद्ध हैं। ये मांस और अंडे के लिए भी पहचानी जाती हैं, लेकिन इनका प्रमुख उपयोग मुर्गों की लड़ाई में होता है।
असील की सबसे अच्छी नस्ल कौन सी है?
असील की सबसे अच्छी नस्ल उन मुर्गियों की होती है जो लड़ाई के लिए अत्यधिक सक्षम और शारीरिक रूप से मजबूत होती हैं। इसके अलावा, पंखों का रंग और पैटर्न भी नस्ल की विशेषताएं दर्शाता है।
असील की पहचान कैसे करें?
असील मुर्गियों की पहचान उनके मजबूत शरीर, विशेष रूप से पंजों में बोनी स्पर, और लड़ाकू स्वभाव से की जा सकती है। इनके पंख आमतौर पर भूरा-लाल रंग के होते हैं, साथ ही पंजे पीले होते हैं। इनकी शारीरिक संरचना और प्रवृत्तियों को देखकर आसानी से पहचाना जा सकता है कि ये असील मुर्गियां हैं।
आप मुर्गियों में रोग का नियंत्रण कैसे करते हैं?
असील मुर्गियां आमतौर पर फ्री रेंज प्रणाली में पाली जाती हैं, और इन्हें मुख्य रूप से धान, ज्वार, रागी जैसे आहार दिए जाते हैं। बीमारियों के फैलने से बचने के लिए इन्हें पर्याप्त पानी और सुरक्षित जगह में रखा जाता है।
असील मुर्गे की क्या पहचान है?
असील मुर्गे की पहचान उसकी शारीरिक ताकत, लड़ाई की प्रवृत्ति, और खासकर उसके पंजों में बोनी स्पर से होती है। इसके अलावा, पंखों का रंग और पैटर्न भी इसकी पहचान में मदद करते हैं। इनकी राजसी चाल और साहसी स्वभाव भी इन्हें अन्य नस्लों से अलग बनाता है।
असील मुर्गी 1 साल में कितने अंडे देती है?
असील मुर्गियां प्रति वर्ष लगभग 30-36 अंडे देती हैं, जो तीन चक्रों में विभाजित होते हैं (प्रत्येक चक्र में 10-12 अंडे)। हालांकि पक्षी पूरे वर्ष अंडे देते हैं, लेकिन गर्मियों के दौरान विशेष रूप से मई और जून में इसकी आवृत्ति बहुत कम होती है। अगर अंडे दिए भी जाते हैं तो उनमें से बच्चे निकलने की क्षमता बहुत कम होती है। अंडे का रंग मुख्य रूप से भूरा होता है।
कड़कनाथ मुर्गी महीने में कितने अंडे देती है?
कड़कनाथ मुर्गी सामान्यत: महीने में 15-20 अंडे देती है। कड़कनाथ मुर्गी एक साल में औसतन 80 अंडे देती है।
असील मुर्गी की कौन सी नस्ल है?
असील मुर्गी का मुख्य उद्देश्य लड़ाई के लिए पाला जाता है, लेकिन इसे मांस उत्पादन के लिए भी पाला जाता है। यह एक पुरानी और शुद्ध नस्ल मानी जाती है।
लखनऊ का मुर्गा किसे कहा जाता है?
लखनऊ का मुर्गा असील मुर्गे को कहा जाता है, जो खास तौर पर अपनी लड़ाकू प्रवृत्तियों और मजबूत शरीर के लिए प्रसिद्ध है।
मुर्गे की किस नस्ल में Bony Spur सबसे अधिक विकसित होते हैं?
असील मुर्गे की नस्ल में Bony Spur (हड्डी वाले पंजे) सबसे अधिक विकसित होते हैं, जो इसे लड़ाई के लिए आदर्श बनाता है।
मुर्गे की किस नस्ल में राजसी चल देखने को मिलती है?
असील मुर्गे की नस्ल में राजसी चल देखने को मिलती है, क्योंकि ये मुर्गे अपनी ताकत और संघर्ष की प्रवृत्ति के लिए प्रसिद्ध होते हैं।
मुर्गे की किस नस्ल में लड़ाकू मुर्गा या Indian Game कहा जाता है?
असील मुर्गे को लड़ाकू मुर्गा या इंडियन गेम के रूप में जाना जाता है। इस नस्ल के मुर्गे लड़ाई में विशेष रूप से सक्षम होते हैं।